“विश्व के पटल पर कूटनीति की ताल ठोकती केंद्र की सरकार अपने ही पेट पर मार रहीं लाठी, किसान बिल पर बौखलाया अन्नदाता का आक्रोश चरम पर”
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बलिया (ब्यूरो) क्या लोकतंत्र लाठी खा रहा है? तो जबाब भी लाठी से होगा अथवा प्रशासन की मुस्तैदी से? चूकि तंत्र एवं लोक दोनो को परस्पर संतुलन बनाये रखना उतना ही आवश्यक है जितना प्राण और शरीर का। जिस किसान आंदोलन में अन्नदाता की पीठ पर लाठी पड़ी वह लोक पर तंत्र की लाठी थी जिसे सहने के लिए किसी किसान का कलेजा चाहिए न कि रेस्टुरेंट में चाय पत्ती चीनी को दूध में खौलाती चुसकी! विश्व के पटल पर कूटनीति की ताल ठोकती केंद्र की सरकार अपने ही पेट पर लाठी मार रही है। किसान बिल पर बौखलाया अन्नदाता का आक्रोश चरम पर है। उक्त बातें किसान फोर्स बलिया के ए० के० सिंह ने कही। उन्होंने आगे कहा कि बेशक इसे सरकार केवल पंजाब हरियाणा तक की सीमा में समेटने का प्रयास करे पर सच्चाई यह है कि यूपी का पूर्वाँचल भी उतना ही खौल रहा है। हर किसान मोर्चे पर डटा किसान फोर्स बलिया यूपी से भी अपने श्रम के मूल्याँकन को उसी तराजू पर तौलना चाहता है जो बुजूर्गों का सर तोड़ने वाले बेलगाम हुक्मरानों के लिए बना है। संतुलन के लिए एक ही तराजू के आजू बाजू लोक और तंत्र दोनो की नाप तौल समान होनी ही चाहिए। इसको लेकर किसी मर्यादित संसद की नोक झोंक ने नायक खलनायक का भेद मिटा दिया। समाजवाद को ओढ़ कर न्याय की कुर्सी पर विराजमान राज्यसभा के मुकुट शिरोमणि हरिबंश जी उन किसानो के सिर फूटने पर कौन सी शोक सभा बुलाए। यह भी किसान खूब समझता है। किसान अब जाग चुका है। कृषि वागवानी से लेकर पशुपालन मत्स्यपालन तक करने मे दक्ष किसान के श्रम की मजदूरी लूटने वाली सरकार शायद यह भूल रही है कि देश की जीडीपी को इज्जत बक्शने वाले किसान का सम्मान मात्र रुपयों के आँकड़ों से नहीं खरीदा जा सकता, जिस भाव में MSP की गारंटी चाहता है किसान। जिसे किसी तानाशाही अंदाज में दुत्कारा नहीं जा सकता। सवाल यह है कि केंद्र और राज्य वास्तव में देश को विकास का रास्ता दिखाना चाहतें हैं, तो तंत्र एवम लोक दोनों की विश्वास पात्र कड़ी बने। आंदोलन को कुचलने वाले अस्त्र शस्त्र धारी कोई गैर नहीं। ये भी उन किसान मजदूरों के ही नौनिहाल हैं जो राज्य की सीमा से लेकर गर्भ गृह तक सुरक्षा में उसी भाँति सावधान है, जितना धूप शीत सहकर मौसम की मार झेलता किसान। उस किसान का आक्रोश जायज कहा जाय तो यही सरकार के लिए अपनी नाकामी का पश्चाताप है। जिसे बार बार झूठ बोल कर सच बताया जा रहा है। किसान मजदूर के अलावे उपभोक्ताओं के सेहत पर असर डालने वाले बिल का कोरोना की महामारी में अध्यादेश लाना यदि विपक्ष के संदेह का कारण है तो इस कारण का निवारण करती रहे। राजनीति पर याद रहे कि किसान के जीवन की साथी लाठी उठेंगी और माथे पर स्वाभिमान की पगड़ी बधेंगी, जैसा पंजाब के प्रीति पाल जैसे किसान के सिर बँधी है। क्या बिल वापस लेने का दबाव झेल रही सरकार उस श्रम दाता के श्रम की लूट का हिस्सा लौटाएगी या पूरा ही गपक जाएगी। सदियों का प्रताड़ित किसान को पीटना तो दूर धक्का पहुँचाना भी उतना ही गुनाह है जितना आत्महत्या करने वालों की बद्दुआ। कच्चे माल के कृषि उत्पादक यदि अपनी लागत की माँग को लेकर अपनी मुहर लगाई। किसान सरकार से देश की कृषि सुरक्षा पर सवाल करता है तो यह नाजायज है या जायज। यदि आप भी मिट्टी से उपजा ही खाते हैं तो अन्नदाता की जीवन उर्जा बनें, जिससे वह गर्व से बोल उठे जय जवान जय किसान।
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