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अगले दिन भारत ने उनको रोकने के लिए अपने सैनिक भेजने का फैसला किया। सात नवंबर को कबाइलियों ने राजौरी पर कब्जा कर लिया और बहुत बड़ी संख्या में वहां रहने वाले लोगों का कत्लेआम हुआ। 50 पैरा ब्रिगेड के कमांडर ब्रिगेडियर उस्मान नौशेरा में डटे तो हुए थे, लेकिन कबाइलियों ने उसके आसपास के इलाकों खासकर उत्तर में नियंत्रण बना रखा था। उस्मान उनको वहां से हटाकर चिंगास तक का रास्ता साफ कर देना चाहते थे, लेकिन उनके पास पर्याप्त संख्या में सैनिक नहीं थे, इसलिए उन्हें सफलता नहीं मिल पाई। 24 दिसंबर को कबाइलियों ने अचानक हमला कर झंगड़ पर कब्जा कर लिया। इसके बाद उनका अगला लक्ष्य नौशेरा था। उन्होंने इस शहर को चारों तरफ से घेरना शुरू कर दिया। चार जनवरी, 1948 को उस्मान ने अपनी बटालियन को आदेश दिया कि वो झंगड़ रोड पर भजनोआ से कबाइलियों को हटाना शुरू करें। ये हमला बगैर तोपखाने के किया गया, लेकिन ये असफल हो गया और कबाइली अपनी जगह से टस से मस नहीं हुए। इस सफलता से उत्साहित होकर उन्होंने उसी शाम नौशेरा पर हमला बोल दिया, लेकिन भारतीय सैनिकों ने उस हमले को नाकाम कर दिया। दो दिन बाद उन्होंने उत्तर पश्चिम से दूसरा हमला बोला। ये भी नाकामयाब रहा। फिर उसी शाम कबाइलियों ने 5000 लोगों और तोपखाने के साथ एक और हमला बोला। ब्रिगेडियर उस्मान के सैनिकों ने अपना पूरा जोर लगाकर तीसरी बार भी कबाइलियों को नौशेरा पर कब्जा नहीं करने दिया। उस्मान की जीवनी लिखने वाले जनरल वी. के. सिंह बताते हैं, कि कबाइलियों के हमले नाकाम करने के बावजूद गैरिसन के सैनिकों का मनोबल बहुत ऊंचा नहीं था। विभाजन के बाद फैले सांप्रदायिक वैमनस्य की वजह से कुछ सैनिक अपने मुस्लिम कमांडर की वफादारी के बारे में निश्चिंत नहीं थे। उस्मान को न सिर्फ अपने दुश्मनों के मंसूबों को ध्वस्त करना था बल्कि अपने सैनिकों का भी विश्वास जीतना था। उनके शानदार व्यक्तित्व, व्यक्ति प्रबंधन और पेशेवर रवैये ने कुछ ही दिनों में हालात बदल दिए। उस्मान ने ब्रिगेड में एक दूसरे से बात करते हुए जय हिंद कहने का प्रचलन शुरू करवाया। जनवरी 1948 में ही पश्चिमी कमान का चार्ज लेने के बाद लेफ्टिनेंट जनरल करियप्पा ने नौशेरा का दौरा किया। मेजर एसके सिन्हा के साथ वो टू सीटर ऑस्टर विमान से नौशेरा की हवाई पट्टी पर उतरे। उस्मान ने उनका स्वागत किया और अपनी ब्रिगेड के सैनिकों से उनको मिलवाया। अर्जुन सुब्रमणियम अपनी किताब "इंडियाज वार्स" में लिखते हैं, वापस लौटने से पहले करियप्पा ब्रिगेडियर उस्मान की तरफ मुड़े और उन्होंने उनसे कहा कि मैं आपसे एक तोहफो चाहता हूं। मैं चाहता हूं कि आप नौशेरा के पास के सबसे ऊंचे इलाके कोट पर कब्जा करें, क्योंकि दुश्मन वहां से नौशेरा पर हमला करने की योजना बना रहा है। इससे पहले कि वो ऐसा कर पाए आप कोट पर कब्जा कर लीजिए। उस्मान ने करियप्पा से वादा किया कि वो उनकी फरमाइश को कुछ ही दिनों में पूरा कर देंगे। कोट नौशेरा से 9 किलोमीटर उत्तर पूर्व में था। ये कबाइलियों के लिए एक तरह से ट्रांसिट कैंप का काम करता था, क्योंकि वो राजौरी से सियोट के रास्ते में था। उस्मान ने कोट पर कब्जा करने के ऑपरेशन को "किपर" का नाम दिया।
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करियप्पा इसी नाम से सैनिक हल्कों में जाने जाते थे। उन्होंने कोट पर दो बटालियनों के ताथ दोतरफा हमला बोला। 3 पैरा ने दाहिनी तरफ से पथरडी और उपर्ला डंडेसर पर चढ़ाई की और 2/2 पंजाब ने बाईं तरफ से कोट पर हमला बोला। वायुसेना ने जम्मू एयरबेस से उड़ान भर कर एयर सपोर्ट दिया। कबाइलियों को ये आभास दिया गया कि हमला वास्तव में झंगड़ पर हो रहा है। इसके लिए घोड़े और खच्चरों का इंतजाम किया गया। भारतीय सैनिकों ने मराठों का नारा 'बोल श्री छत्रपति शिवाजी महराज की जय' बोलते हुए कबाइलियों पर हमला किया। इस लड़ाई में हाथों और संगीनों का जम कर इस्तेमाल किया गया। कोट पर हमला एक फरवरी, 1948 की सुबह छह बजे किया गया था और सात बजे तक ये लगने लगा था कि कोट पर भारतीय सैनिकों का कब्जा हो जाएगा। 2/2 पंजाब ने अपनी कामयाबी का संदेश भी भेज दिया था। बाद में पता चला कि बटालियन ने गांव के घरों की अच्छी तरह से तलाशी नहीं ली थी और वो कुछ कबाइलियों को पहचान नहीं पाए थे जो सो रहे थे। थोड़ी देर में उन्होंने जवाबी हमला बोल दिया और आधे घंटे के अंदर कबाइलियों ने कोट पर दोबारा कब्जा कर लिया। उस्मान ने इसका पहले से ही अंदाजा लगाते हुए दो कंपनियां रिजर्व में रख छोड़ी थीं। उनको तुरंत आगे बढ़ाया गया और भारी गोलाबारी और हवाई बमबारी के बीच 10 बजे कोट पर दोबारा कब्जा कर लिया गया। इस लड़ाई में कबाइलियों के 156 लोग मरे जबकि 2/2 पंजाब के सिर्फ सात लोग मारे गए। छह फरवरी, 1948 को कश्मीर युद्ध की सबसे महत्वपूर्ण लड़ाई लड़ी गई। सुबह छह बजे उस्मान कलाल पर हमला करने वाले थे, लेकिन तभी उन्हें पता चला कि कबाइली उसी दिन नौशेरा पर हमला करने वाले हैं। इस हमले में कबाइलियों की तरफ से 11000 लोगों ने भाग लिया। 20 मिनट तक गोलाबारी के बाद करीब 3000 पठानों ने तेनधर पर हमला किया और लगभग इतने ही लोगों ने कोट पर हमला बोला। इसके अलावा लगभग 5000 लोगों ने आसपास के इलाके कंगोटा और रेदियां को अपना निशाना बनाया। जैसे ही पौ फटी हमलावरों ने रक्षण कर रहे उस्मान के सैनिकों पर जोरदार हमला बोल दिया। एक राजपूत की पलटन नंबर 2 ने इस हमले के पूरे आवेग को झेला। 27 लोगों की पिकेट में 24 लोग या तो मारे गए या बुरी तरह से घायल हो गए। बचे हुए तीन सैनिकों ने तब तक लड़ना जारी रखा जब तक उनमें से दो सैनिक धराशाई नहीं हो गए। सिर्फ एक सैनिक बचा था। तभी वहां कुमुक पहुंच गई और उसने स्थिति को बदल दिया। अगर उनके वहां पहुंचने में कुछ मिनटों की भी देरी हो जाती तो तेनधार भारतीय सैनिकों के हाथ से जाता रहता। अभी तेनधार और कोट पर हमला जारी था कि 5000 पठानों के झुंड ने पश्चिम और दक्षिण पश्चिम की ओर से हमला किया। ये हमला नाकामयाब किया गया। इस असफलता के बाद पठान पीछे चले गए और लड़ाई का रुख बदल गया। इस लड़ाई में सैनिकों के अलावा एक राजपूत के एक सफाई कर्मचारी ने भी असाधारण वीरता दिखाई। कबाइलियों के खत्म न होने वाले जत्थों के हमले के दौरान जब भारतीय सैनिक धराशाई होने लगे तो उसने एक घायल सैनिक के हाथ से राइफल लेकर कबाइलियों पर गोली चलानी शुरू कर दी।
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उसने एक हमलावर के हाथ से तलवार खींचकर तीन कबाइलियों को भी मारा। इस अभियान में "बालक सेना" की भी बड़ी भूमिका रही, जिसे ब्रिगेडियर उस्मान ने नौशेरा में अनाथ हो गए छह से 12 साल के बच्चों को शामिल कर बनाया था। उन्होंने उनकी शिक्षा और ट्रेनिंग की व्यवस्था की थी। नौशेरा की लड़ाई के दौरान इनका इस्तेमाल चलती हुई गोलियों के बीच संदेश पहुंचाने के लिए किया गया था। लड़ाई खत्म होने के बाद इनमें से तीन बालकों को बहादुरी दिखाने के लिए सम्मानित किया गया और प्रधानमंत्री नेहरू ने उन्हें सोने की घड़ियां इनाम में दीं। नौशेरा की लड़ाई के बाद ब्रिगेडियर उस्मान का हर जगह नाम हो गया और रातों-रात वो देश के हीरो बन गए। जेएके डिवीजन के जनरल ऑफिसर कमांडिंग मेजर जनरल कलवंत सिंह ने एक प्रेस कान्फ्रेंस कर नौशेरा की सफलता का पूरा सेहरा 50 पैरा ब्रिगेड के कमांडर ब्रिगेडियर मोहम्मद उस्मान के सिर पर बांधा। जब उस्मान को इसका पता चला तो उन्होंने कलवंत सिंह को अपना विरोध प्रकट करते हुए पत्र लिखा कि 'इस जीत का श्रेय सैनिकों को मिलना चाहिए, जिन्होंने इतनी बहादुरी से लड़कर देश के लिए अपनी जान दी, न कि ब्रिगेड के कमांडर के रूप में उनको। 10 मार्च, 1948 को मेजर जनरल कलवंत सिह ने झंगड़ पर पुन: कब्जा करने के आदेश दिए। जब ब्रिगेडियर उस्मान ने अपने सैनिकों को वो मशहूर आदेश दिया जिसमें लिखा था, 'पूरी दुनिया की निगाहें आप के ऊपर हैं। हमारे देशवासियों की उम्मीदें और आशाएं हमारे प्रयासों पर लगी हुई हैं। हमें उन्हें निराश नहीं करना चाहिए। हम बिना डरे झंगड़ पर कब्जा करने के लिए आगे बढ़ेंगे। भारत आपसे अपना कर्तव्य पूरा करने की उम्मीद करता है। इस अभियान को 'ऑपरेशन विजय' का नाम दिया गया था। इसको 12 मार्च को शुरू होना था, लेकिन भारी बारिश के कारण इसको दो दिनों के लिए टाल दिया गया था। जब भारतीय सैनिक कबाइलियों के बंकर में पहुंचे तो उन्होंने पाया कि वहां खाना पक रहा था और केतलियों में चाय उबाली जा रही थी। उनको आग बुझाने का भी मौका नहीं मिल पाया था। 18 मार्च को झंगड़ भारतीय सेना के नियंत्रण में आ गया था। जनरल वीके सिंह ब्रिगेडियर उस्मान की जीवनी में लिखते हैं कि दिसंबर, 1947 में भारतीय सेना के हाथ से झंगड़ निकल जाने के बाद ब्रिगेडियर उस्मान ने राणा प्रताप की तरह प्रण किया था कि वो तब तक पलंग पर नहीं सोएंगे जब तक झंगड़ दोबारा भारतीय सेना के नियंत्रण में नहीं आ जाता। जब झंगड़ पर कब्जा हुआ तो ब्रिगेडियर उस्मान के लिए एक पलंग मंगवाई गई। लेकिन ब्रिगेड मुख्यालय पर कोई पलंग उपलब्ध नहीं थी, इसलिए नजदीक के एक गांव से एक पलंग उधार ली गई और ब्रिगेडियर उस्मान उस रात उस पर सोए। ब्रिगेडियर उस्मान तीन जुलाई 1948 को पाकिस्तानी घुसपैठियों से लड़ते हुए मारे गए। उस समय बाद में भारत के उप-थलसेनाध्यक्ष बने जनरल एस के सिन्हा मौजूद थे। उन्होंने इसका विवरण देते हुए बताया था, हर शाम साढ़े पांच बजे ब्रिगेडियर उस्मान अपने मातहतों की बैठक लिया करते थे। उस दिन बैठक आधे घंटे पहले बुलाई गई और जल्दी समाप्त हो गई। पांच बजकर 45 मिनट पर कबाइलियों ने ब्रिगेड मुख्यालय पर गोले बरसाने शुरू कर दिए।
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चार गोले तंबू से करीब 500 मीटर उत्तर में गिरे। हर कोई आड़ लेने के लिए भागा। उस्मान ने सिग्नलर्स के बंकर के ऊपर एक चट्टान के पीछे आड़ ली। उनकी तोपों को चुप कराने के लिए हमने भी गोलाबारी शुरू कर दी। अचानक उस्मान ने मेजर भगवान सिंह को आदेश दिया कि वो तोप को पश्चिम की तरफ घुमाएं और प्वाएंट 3150 पर निशाना लें। भगवान ये आदेश सुन कर थोड़ा चकित हुए, क्योंकि दुश्मन की तरफ से तो दक्षिण की तरफ से फायर आ रहा था। लेकिन उन्होंने उस्मान के आदेश का पालन करते हुए अपनी तोपों के मुंह उस तरफ कर दिए जहां उस्मान ने इशारा किया था। वहां पर कबाइलियों की "आर्टलरी ऑब्जरवेशन पोस्ट" थी। इसका नतीजा ये हुआ कि वहां से फायर आना बंद हो गया। जनरल सिन्हा ने आगे बताया, 'गोलाबारी रुकते ही सिग्नल्स के लेफ्टिनेंट राम सिंह अपने साथियों के साथ नष्ट हो गए एरियल्स की मरम्मत करने लगे। उस्मान भी ब्रिगेड कमांड की पोस्ट की तरफ बढ़ने लगे। मेजर भगवान सिंह और मैं उनके पीछे चल रहे थे। हमने कुछ ही कदम लिए होंगे कि भगवान सिंह ने एक गोले की आवाज सुनी। उन्होंने मेरी बांह पकड़ कर मुझे पीछे खींच लिया। अब तक उस्मान कमांड पोस्ट के दरवाजे पर पहुंच गए थे और वहां रुक कर सिग्नल वालों से बात कर रहे थे। तभी 25 पाउंड का एक गोला पास की चट्टान पर गिरा। उसके उड़ते हुए टुकड़े ब्रिगेडियर उस्मान के शरीर में धंस गए और उनकी उसी जगह पर मौत हो गई। उस रात पूरी रात गोलाबारी हुई और झंगड़ पर करीब 800 गोले दागे गए। ब्रिगेडियर उस्मान के मरते ही पूरी गैरिसन में शोक छा गया। जब भारतीय सैनिकों ने सड़क पर खड़े हो कर अपने ब्रिगेडियर को अंतिम विदाई दी तो सब की आंखों में आंसू थे। सारे सैनिक उस अफसर के लिए रो रहे थे जिसने बहुत कम समय में उन्हें अपना बना लिया था। पहले उनके पार्थिव शरीर को जम्मू लाया गया। वहां से उसे दिल्ली ले जाया गया। देश के लिए अपनी जिंदगी देने वाले इस शख्स के सम्मान में दिल्ली हवाईअड्डे पर बहुत बड़ी भीड़ जमा हो गई थी।
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सरकार ने राजकीय सम्मान के साथ उनकी अंतयेष्ठि की। उनके जनाजे को जामिया मिलिया विश्वविद्यालय में दफनाया गया, जिसमें भारत के तत्कालीन गवर्नर जनरल लॉर्ड माउंटबेटन और प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू अपने मंत्रिमंडल के सदस्यों के साथ मौजूद थे। इसके तुरंत बाद ब्रिगेडियर मोहम्मद उस्मान को मरणोपरांत महावीर चक्र देने की घोषणा कर दी गई। उस समय ब्रिगेडियर उस्मान ने अपनी जिंदगी के 36 साल भी पूरे नहीं किए थे। अगर वो जीवित रहते तो निश्चित रूप से वो अपने पेशे के सर्वोच्च पद पर पहुंचते। झंगड़ के भारतीय सेना के हाथ से निकल जाने के बाद बहुत से आम नागरिकों ने नौशेरा में शरण ली थी। उस समय वहां खाने की कमी थी। उस्मान ने अपने सैनिकों को मंगलवार को व्रत रखने का आदेश दिया ताकि उस दिन का बचा हुआ राशन आम लोगों को दिया जा सके। ब्रिगेडियर उस्मान ने ताउम्र शराब नहीं पी। डोगरों के साथ काम करते हुए वो शाकाहारी भी हो गए थे। वो पूरी उम्र अविवाहित रहे और उनके वेतन का बहुत बड़ा हिस्सा गरीब बच्चों की मदद के लिए जाता रहा। उनके जीवनीकार जनरल वी के सिंह एक किस्सा सुनाते हैं, 'नौशेरा पर हमले के दौरान उन्हें बताया गया कि कुछ कबाइली एक मस्जिद के पीछे छिपे हुए हैं और भारतीय सैनिक पूजास्थल पर फायरिंग करने से झिझक रहे हैं। उस्मान ने कहा कि अगर मस्जिद का इस्तेमाल दुश्मन को शरण देने के लिए किया जाता है तो वो पवित्र नहीं है। उन्होंने उस मस्जिद को ध्वस्त करने के आदेश दे दिए। भारत के सैनिक इतिहास में अब तक ब्रिगेडियर उस्मान वीर गति को प्राप्त होने वाले सबसे वरिष्ठ सैन्य अधिकारी हैं। झंगड़ मे उसी चट्टान पर उनका स्मारक बना हुआ है जहां गिरे तोप के एक गोले ने उनकी जान ले ली थी।
रिपोर्ट- नई दिल्ली डेस्क