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भोगवादी प्रवृत्ति एवं विकास हेतु किए जाने वाले कार्यों हेतु पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी के तत्वों का बेरहमी से हो रहा दोहन एवं शोषण- डॉ गणेश पाठक


बलिया (ब्यूरों) मानव कभी अज्ञानता वश तो कभी जानबुझकर अपनी भोगवादी प्रवृत्ति एवं विकास हेतु किए जाने वाले कार्यों हेतु पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी के तत्वों का बेरहमी से दोहन एवं शोषण किया है, जिसके चलते अधिकांश प्राकृतिक संसाधन विनाश के कगार पर हैं एवं कुछ तो सदैव के लिए समाप्त हो गए हैं, तथापि पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी में असंतुलन की स्थिति उत्पन्न हो गयी है, जिसका नतीजा हमें विभिन्न आपदाओं के रूपमें झेलना पड़ रहा है और मानव का अस्तित्व भी खतरे में पड़ता जा रहा है। उक्त संदर्भ में बलिया जनपद सहित पूर्वांचल के संदर्भ में "ख़बरे आजतक Live" से एक भेंटवार्ता में अमरनाथ मिश्र पी० जी० कालेज दूबेछपरा के पूर्व प्राचार्य, प्रसिद्ध पर्यावरणविद् एवं भूगोलविद्  डा० गणेश कुमार पाठक ने बताया कि बलिया सहित पूर्वांचल में पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी की स्थिति अच्छी नहीं है। 

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इन क्षेत्रों में न केवल भौतिक पर्यावरण, बल्कि सांस्कृतिक पर्यावरण भी बेहद खराब है । डा० पाठक ने बताया कि पूर्वांचल के सात जिलों - आजमगढ़, मऊ, बलिया, जौनपुर, गाजीपुर, वाराणसी एवं संत रविदासनगर में वनावरण क्षेत्र एक प्रतिशत से भी कम है जो क्रमशः 0.03, 0.33, 0.01, 0.02, 0.04, 0.00 एवं 0.16 प्रतिशत है। मात्र चंदौली, मिर्जापुर एवं सोनभद्र जिलों में ही यह क्रमशः 30.0,24.14 एवं 47.84 प्रतिशत है। इनमें से मात्र सोनभद्र को ही कुछ ठीक कहा जा सकता है। सोचनीय बात है कि जहाँ पारिस्थितिकी संतुलन हेतु सम्पूर्ण क्षेत्रफल के 33 प्रतिशत भाग पर वनावरण का होना आवश्यक है। वहां पूर्वांचल के छः जिलों में एक प्रतिशत भी नहीं है। 


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पौराणिक आख्यानों के अनुसार कभी बलिया जनपद घने जंगलों से आच्छादित था और 'धर्मारण्य' तथा 'वृहदारण्य' दो क्षेत्रों में विभाजित था। धर्मारण्य क्षेत्र में ऋषि- मुनि तपस्या करते थे जो भृगु आश्रम क्षेत्र के चतुर्दिक फैला था, जबकि वृहदारण्य क्षेत्र अति घना जंगल था किन्तु जब इस क्षेत्र में मानव बसाव हुआ तो बसने हेतु एवं कृषि हेतु सम्पूर्ण जंगल का पूर्णतः सफाया कर दिया गया, जिसका नतीजा हमारे सामने है। डा० पाठक ने बताया कि केवल जंगलों के सफाया हो जाने से ही प्रकृति के अधिकांश तत्व संभवतः समाप्त हो जाते हैं। जैव विविधता पूरी तरह नष्ट हो जाती है, वन आधारित सारे संसाधन समाप्त हो जाते हैं, गर्मी बढ़ जाती है, वर्षा कम हो जाती है, स्थलीय चक्रवात अधिक आने लगते हैं , मिट्टी अपरदन बढ़ जाता है और बाढ़ की स्थिति भी भयावह हो जाती है। 


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इन सारी आपदाओं को बलिया सहित पूर्वांचल को झेलना पड़ता है। बाढ़ की स्थिति के बारे में डा० पाठक ने बताया कि बलिया में प्रायः 675 गाँव गंगा, घाघरा एवं टोंस नदियों के बाढ़ से प्रभावित रहते हैं। बाढ़ से कुल 120182 हेक्टेयर क्षेत्र प्रभावित होता है और उसमें जल प्लावन क्षेत्र को भी जोड़ दियि जाय तो यह क्षेत्रफल लगभग 187364 हेक्टेयर हो जाता है। भूजल एवं धरातलीय जल की भी स्थिति ठीक नहीं है। धरातलीय जल नदियाँ एवं ताल- तलैया सूखते जा रहे हैं तथा भूमिगत जल निरन्तर नीचे खिसकता जा रहा है, जिससे भविष्य में पेयजल एवं सिंचाई हेतु जल की भी समस्या उत्पन्न हो सकती है। बलिया सहित पूरे पूर्वांचल में सांस्कृतिक एवं सामाजिक पर्यावरण की स्थिति बेहद बिगड़ती जा रही है जो भौतिक पर्यावरण की बिगड़ती हालत से उत्पन्न समस्याओं से भी अधिक खतरनाक साबित हो रही है। 


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बलिया जनपद में बढ़ती जनसंख्या एवं घटते संसाधन का का दुष्परिणाम स्पष्टतया दृष्टिगोचर हो रहा है। जनसंख्या वृद्धि का यदि समुचित उपयोग संसाधन के रूपमें न किया जाय तो यह संसाधन स्वयं में गम्भीर समस्याएं उत्पन्न करता है जो हमें सामाजिक समस्या, आर्थिक समस्या एवं पर्यावरणीय समस्या के रूप में उभर कर सामने आता है। यदि सामाजिक समस्या को पर्यावरण के संदर्भ में देखा जाय तो वह उन सामाजिक संबंधों, समूहों, संगठनों, आर्थिक, राजनैतिक, सामाजिक ढाँचों, मूल्यों एवं परम्पराओं से संबंधित है जो जीवन के आरम्भ से लेकर मृत्यु तक मानव को प्रभावित करते हैं। यदि देखा जाय तो बलिया की जनसंख्या में प्रायः निरन्तर वृद्धि हुई है जो 1931, 1941, 1951, 1961, 1971, 1981, 1991, 2001 एवं


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2011 में बलिया की जनसंख्या में क्रमशः 9.88, 15.96, 12.61, 12.17, 18.94, 16.41, 22.33, 22.10 एवं 16.77 प्रतिशत की वृद्धि हुई है, जिनसे अनेक समस्याएं उत्पन्न हो रही हैं। अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु लोग अनैतिक कार्यों में लिप्त होते जा रहे हैं। चोरी, डकैती, छिनैती में वृद्धि हो रही है। नैतिक एवं चारित्रिक पतन हो रहा है। पश्चिमी करण की नकल ने इसमें और वृद्धि की है। समाज में अनाचार, दुराचार, व्यभिचार बढ़ता जा रहा है। अनुशासनहीनता बढ़ती जा रही है। यह सब अतिशय जनसंख्या वृद्धि का ही परिणाम है। भौतिक एवं सांस्कृतिक पर्यावरण प्रदूषण रोकने हेतु हमें भारतीय सनातन संस्कृति की तरफ लौटना होगा। यदि हमें पर्यावरण प्रदूषण चाहे वह भौतिक हो या सामाजिक एवं सांस्कृतिक तो हमें अपने सनातन संस्कृति को अपनाते हुए उसी के अनुरूप जीवन शैली अपनानी होगी। 


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हम प्रकृति पूजक हैं। हमारी संस्कृति अरण्य संस्कृति रही है। हम प्रकृति के प्रत्येक अवयवों की पूजा उनकी सुरक्षा एवं संरक्षण की दृष्टि से ही करते हैं। हम प्रत्येक महत्वपूर्ण, वृक्ष, हिंसक- अहिंसक जीव-जंतु, जल स्रोत, वायु, आकाश, अग्नि एवं सम्पूर्ण पृथ्वी की पूजा उनको संरक्षित रखने के भाव से ही श्रध्दापूर्वक करते हैं। हमारे यहाँ सभी हिंसक - अहिंसक जीवों को देवी- देवताओं का वाहन बना दिया गया है ताकि उनको कोई हानि न पहुँचाए। वृक्षों पर भी देवी- देवताओं का वास बना दिया गया ताकि उनको कोई नष्ट न करे।  हम "भगवान" की पूजा करते हैं और भगवान में निहित शब्द हैं: भ= भूमि, ग= गगन, व= वायु, अ= अग्नि एवं न= नीर। अर्थात् क्षिति, जल, पावक, गगन , समीर इन पाँच मूलभूत तत्वों की पूजा ही हम "भगवान" के रूप में करते हैं। हमारे यहां एक वृक्ष लगाने का पुण्य दस पुत्र प्राप्त करने के बराबर माना गया है। 


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अनेक संकल्पनाएं हमारे भारतीय वांगमय में भरी पड़ी हैं, जो पर्यावरण को सुरक्षित एवं संरक्षित करने से संबंधित हैं। किन्तु पश्चिमी सभ्यता की अंधी दौड़ में हम इन्हें भूल चुके हैं। आज आवश्यकता इस बात की है कि हम अपने सनातन मूल्यों को पहचानते हुए तद्नुसार अपनी जीवन शैली अपनाएँ। हम "माता भूमि पुत्रोअहम् पृथ्विव्याः" की अवधारणा के पोषक हैं तो भला हम अपनी धरती माँ को उजाड़ होते हुए कैसे देख सकते हैं। आज आवश्यकता है कि हम अधिक से अधिक वृक्ष लगाएँ और उनकी सुरक्षा करें। इसके लिए हमें जन जागरूकता लानी होगी और वृक्ष लगाने को अपने जीवन का अंग बनाना होगा। अगर पृथ्वी को विनष्ट होने से बचाना है और मानव को भी अपना वर्तमान एवं भविष्य दोनों सुरक्षित रखना है तो उसका एकमात्र उपाय है पृथ्वी को हरा- भरा करना।


रिपोर्ट- डॉ ए० के० पाण्डेय

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