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वर्तमान में मानव द्वारा बेरहमी से जैव विविधता का विनाश सम्पूर्ण पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी के लिए अत्यन्त घातक सिद्ध होगा- डॉ गणेश कुमार पाठक


बलिया (ब्यूरों)अमरनाथ मिश्र स्नातकोत्तर महाविद्यालय दूबेछपरा, बलिया के पूर्व प्राचार्य पर्यावरणविद् डा० गणेश कुमार पाठक ने 22 मई को जैव विविधता दिवस पर "ख़बरें आजतक Live" से एक विशेष भेंटवार्ता में बताया कि वर्तमान समय में अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु मानव द्वारा  जिस बेरहमी से जैव विविधता का विनाश किया जा रहा है, वह सम्पूर्ण पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी के लिए अत्यन्त घातक सिध्द हो रहा है जिससे प्रकृति में असंतुलन की स्थिति उत्पन्न होती जा रही है और आगे आने वाले मानव का भविष्य असुरक्षित दृष्टिगोचर हो रहा है। जो पृथ्वी को विनाश की तरफ ले जाने का संकेत दे रहा है। डा० पाठक ने बताया कि आई पी बी इ एस की एक रिपोर्ट के अनुसार अब तक 40% जीव प्रजातियाँ विलुप्त हो चुकी हैं, 1556 प्रजातियाँ सदैव के लिए विलुप्त हो गयी हैं। 10 लाख प्रजातियाँ विलुप्ति के कगार पर है, प्रत्येक चार में से एक प्रजाति विलुप्त हो रही है। 6190 स्तनधारी प्रजातियों में से 559 सदैव के लिए विलुप्त हो गयी हैं, 267 समुद्री प्रजातियों पर संकट के बादल मँडरा रहे हैं। धरती पर विद्यमान अनुमानित 8 मिलियन जीवधारियों एवं पादपों की प्रजातियों में से आगामी दशक में एक लाख मिलियन प्रजातियों एवं पादपों के विलुप्त होने की संभावना है, पृथ्वी की 75 प्रतिशत भूमि एवं 66 प्रतिशत समुद्री पर्यावरण में विशेष बदलाव आया है।

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आर्द भूमियों में से 80 % आर्द्र भूमि समाप्त हो चुकी हैं, 40% उभयचर एवं 33% जलीय स्तनधारी विलुप्ति के कगार पर हैं, मानव गतिविधियों के कारण 680 कशेरूकी की प्रजातियां विलुप्ति के कगार पर हैं, कुल 5.5 मिलियन कीटों की प्रजातियों में से लगभग 10% विलुप्ति के कगार पर हैं, 35 % घरेलू प्रजाति की पक्षियाँ विलुप्त  हो गयी हैं एवं 68% वैश्विक वन क्षेत्र विनष्ट हो गये हैं। इस प्रकार स्पष्ट है कि जीव जगत एवं पादप जगत से जुड़ी प्रायः अधिकांश जैव विविधता या तो विलुप्त हो गयी है अथवा विलुप्ति के कगार पर हैं। यदि हम बलिया जनपद एवं पूर्वांचल के जिलों की बात करें तो जैव विविधता की दृष्टि से इन जनपदों की स्थिति बेहद खतरनाक स्थिति में पहुँच चुकी है। केवल चंदौली, मिर्जापुर एवं सोनभद्र की स्थिति कुछ ठीक है। यदि हम प्राकृतिक वनस्पति की बात करें तो अध्ययन से यह तथ्य प्राप्त हुआ है कि आजमगढ़, मऊ, जौनपुर, गाजीपुर, बलिया, वाराणसी, चंदौली,संतरविदासनगर, मिर्जापुर एवं सोनभद्र जिलों में प्राकृतिक वनस्पति का क्षेत्र  जिले की कुल भूमि का क्रमशः मात्र 0.03, 0.31, 0.02, 0.04, 0.01, 0.00, 30.55, 0.17, 24.14 एवं 47.84 प्रतिशतत है , जबकि मानक के अनुसार यह प्रतिशत कुल भूमि का 33 प्रतिशत होना चाहिए।


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ऐसी स्थिति में हम कह सकते हैं कि जब जीवों के जीने के लिए वास स्थान ही नहीं हैं तो जैव विविधता कहाँ से पायी जायेगी। जबकि प्राचीन काल में ये क्षेत्र जंगलों से आच्छादित थे। खासतौर पर बलिया जनपद तो धर्मारण्य एवं वृहदारण्य दो क्षेत्रों में विभाजित था। धर्मारण्य क्षेत्र भृगु ऋषि के चतुर्दिक घिरा था। जिसमें ऋषि - मुनि तपस्या करते थे, जबकि वृहदारण्य घना जंगल था। जिसमें प्रत्येक तरह की जीव प्रजातियाँ एवं पादप प्रजातियाँ विद्यमान थीं, किन्तु मानव बसाव एवं कृषि कार्यों हेतु उनका सफाया कर दिया गया। सीताकुण्ड एवं परसिया गाँव से दक्षिण दिशा में एक जैविक विविधता से परिपूर्ण जंगल था, जो औषधीय वनस्पतियों से भरपूर था। यह जंगल 1970 तक अस्तित्व में था, जो अब धीरे- धीरे समाप्त हो गया और कृषि क्षेत्र बन गया। बाँगर क्षेत्र में अनेक छोटे- छोटे जंगली क्षेत्र आज से 20 वर्ष पूर्व तक विद्यमान थे। जो जैव विविधता के स्रोत थे। ये भी समाप्त हो गये। गंगा ऊवं घाघरा के दियारे क्षेत्र में झूरमुटनुमा वनस्पतियां थीं, जिनमें जीव जंतु रहते थे। बलिया आर्दभमियों के लिए भी प्रसिद्ध है, जो जैव विविधता के अपार स्रोत हैं, किन्तु ये भी धीरे- धीरे हमारी गतिविधियों के शिकार हो गये और जैव विविधता समाप्त हो गयी।


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डा० पाठक ने बताया कि मिर्जापुर, सोनभद्र एवं चंदौली को छोड़कर बलिया सहित पूर्वांचल के किसी भी जिले में जैव विविधता की स्थिति बेहद नाजुक है या यूं कहिए की नहीं के बराबर है। बाग बगीचों का भी सफाया है जाने घरेलू प्रजाति की पक्षियाँ भी समाप्तप्राय हैं। इन जिलों मानव द्वारा रोपित वृक्ष भी दो प्रतिशत से अधिक नहीं हैं। आज से 25 से 30 वर्ष पूर्व इस क्षेत्र में कुछ न कुछ जैव विविधता मिलती थी।पादप प्रजातियों में अनेक तरह के औषधीय वृक्ष एवं झाड़ियाँ मिलती थीं। जिनमें पलाश, ढाक, अरुस, धमोय, हिंगुआ, भांट, भटकटैया (रेंगनी), बेहाया, जलकुंभी, चकवड़, बेर, बबूल, गिलोय, बँवर, चिरैता सहित सैकड़ों वृक्ष एवं झाड़ियाँ थीं। साथ ही साथ मानव द्वारा रोपित आम, महुआ, जामुन, बरगद, गूलर, सेमल, शीशम, नीम, पीपल आंवला आदि उपयोगी वृक्षों के बगीचे थे जो सभी मानव की भेंट चढ़ गए। यदि जीव जंतुओं को देखा जाय तो इन झरमुटो एवं वनों में जीव -जंतुओं की भरमार थी। जिनमें हिरण, नीलगाय, खरगोश, साहिल, गिलहरी, छिपकली, अनेक तरह के साँप- विच्छू, जंगली सुअर, जंगली कुत्ते, सियार, नेवला, बिलगोह, गिरगिट आदि सहित सैकड़ों जीवन जैव विविधता को कायम रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते थे। साथ ही साथ अनेक तरह की पक्षियाँ जैसे- कौआ, कबूतर, पंडुक, मैना-मैनी, बुलबुल,


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कठफोड़वा, कोयल, बगुला, हंस, बत्तक, महकुल, नीलकंठ, चोंचा, गौरैया, तोता, सोन चिरैया, चीतल, जलमुर्गी, बघेड़ी, हुदहुद, मोर आदि असंख्य पक्षियाँ चहचहाती रहती थीं जो अब समाप्ति के कगार पर हैं। बलिया सहित पूर्वांचल के जिलों में धरातलीय जल एवं भूमिगत जल स्रोत निरन्तर समाप्त होते जा रहे हैं। एक तरफ जहाँ धरातलीय जल स्रोत ताल - तलैया एवं नदियाँ सूखती जा रही हैं। नदी भूमिगत जल के अतिशय दोहन से जल स्तर निरन्तर नीचे खिसकता जा रहा है, जिससे जीव -जंतुओं के लिए एवं पादप प्रजातियों के पोषण हेतु जल की उपलब्धता कम होती जा रही है। बलिया जनपद में वर्षा पूर्व का भू -जल स्तर औसतन 7 मीटर है। जबकि वर्षा पश्चात भू-जल स्तर 4.5 मीटर प्राप्त होता है। प्रतिवर्ष जल स्तर नीचे खिसकता जा रहा है। इस तरह जैव विविधता के पैषण हेतु एवं वास स्थान हेतु आवश्यक वन वृक्ष तथा जल स्रोतों के समाप्त होने तथा मानव द्वारा शिकार आदि सहित विविध उपयोगों हेतु जीव-जंतुओं एवं पक्षियों का बेरहमी से शिकार किया जाना भी जैव विविधता समाप्ति का एक बहुत बड़ा कारण है। डा० पाठक ने बताया कि बलिया सहित पूरे पूर्वांचल के जिलों में जैव विविधता संरक्षण हेतु कोई माकुल कदम नहीं उठाया जा रहा है। 


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न ही इसके प्रति लोगों में जागरूकता है। वन विभाग द्वारा कुछ कार्यक्रम चलाए जाते हैं, किन्तु वो नाकाफी हैं। इतने गंभीर विषय के प्रति कैई भी जिम्मेदारी के साथ सचेष्ट नहीं है, यही कारण है कि जीव - जंतुओं एवं पक्षियों का शिकार बेरोक- टोक जारी है। डा० पाठक का कहना है कि शायद हम इस बात से अनभिज्ञ हैं कि जैव विविधता क्षजितनी ही सबल होती, पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी भी उतनी ही अधिक संतुलित होती है, जिससे मानव जीवन भी सुरक्षित रहता है। जैव विविधता के असंतुलित होने पर मानव जीवन भी संकटग्रस्त हो जाता है। आज आज आवश्यकता इस बात की है कि हम जैव विविधता के महत्व के समझते हुए इसे अधिक से अधिक बचाने एवं सुरक्षित रखने के प्रति सचेष्ट रहते हुए जनजागरूकता लाएँ और एवं शिकार पर येन- केन प्रकरण पर रोक लगायी जाय। हमारी संस्कृति अरण्य संस्कृति रही है, उसी के अनुरूप हम वृक्षों को देवता मानकय उनकी पूजा करते हैं। 'वृक्ष देवों भव' कहा गया है। एक वृक्ष लगाने का फल दस पुत्र प्राप्त करने के बराबर मिलता है। सभी हिंसक- अहिंसक जीवों को देवी- देवता का वाहन बना दिया गया है ताकि उन्हें कोई क्षति न पहुँचाए। बल्कि उनकी सुरक्षा कर जैव विविधता को बनाए रखा जाय। आज हमें पुनः इस अवधारणा पर विशेष बल देना होगा, अन्यथा हमारा भी विनाश होते देर नहीं लगेगा और हम अपना विनाश अपने ही हाथों कर डालेंगे।


रिपोर्ट- डॉ ए० के० पाण्डेय

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